भारतीय संस्कृति में पर्यावरण-संरक्षण और हमारा कर्त्तव्य
भारतीय संस्कृति में पर्यावरण की शुद्धता पर प्राचीनकाल से ही ध्यान दिया जाता रहा है। प्राचीनकाल में हमारे यहाँ पंच भौतिक तत्त्वों यथा-पृथ्वी, जल, आकाश, वायु एवं अग्नि के बारे में काफी लिखा गया, इन्हें पवित्र एवं मूल तत्त्वों के रूप में माना गया। वेदों व उपनिषदों में पंच तत्त्वों, वनस्पति तथा पर्यावरण संरक्षण पर विशद् चर्चा की गई है। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने शरीर को पंच भौतिक तत्त्वों से निर्मित माना है। प्रकृति में वायु, जल, मिट्टी, पेड-पौधों, जीव-जन्तुओं एवं मानव का एक संतुलन विद्यमान है, जो हमारे अस्तित्व का आधार है। जीवनधारी अपनी आवश्यकताओं के लिए प्रकृति पर निर्भर हैं। सच पूछा जाये तो आधुनिक मानव सभ्यता को प्रकृति द्वारा प्रदान की गई सबसे मूल्यवान् निधि पर्यावरण है, जिसका संरक्षण एक बडा दायित्व है। आधुनिक वैज्ञानिक युग में यह आवश्यक है कि प्रकृति द्वारा प्रदत्त इस निधि का बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से उपयोग किया जाए और आने वाली पीढी को भी इसे प्रति जागरूक बनाया जाए। पर्यावरणीय चेतना व पर्यावरण संरक्षण आज के युग की प्रमुख माँग है। शाब्दिक अर्थों में हमारे चारों ओर छाया आवरण (परि+आवरण = पर्यावरण) ही पर्यावरण है।
आज हम सब पर्यावरण के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर रहे है, उदहारण के रूप में जब हम किसी पार्क या अन्य पर्यटक स्थान पर जाते है तो, खान-पान के बाद कचरा इधर उधर फेक देते है और बाद में खुद ही कहते है की "ये जगह कितना गंदा हो गया है सफाई तक नहीं होती यहाँ की".
पार्क, तालाब, नदी यहाँ तक हमारे घर के चारो तरफ भी हम गन्दा कर देते है, और आरोप सरकार पर लगा देते है. यदि साफ़ करने वाले १० और गन्दगी फैलाने वाले १०००० हो तो शहर कैसे साफ़ रह सकता है. सफाई की आदत हमें खुद ही डालनी होगी.
आओ स्वछ एवं प्रदुषण रहित राष्ट्र के लिए प्रतिज्ञा करे
जय हिंद, जय भारत --
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